सियासत : 2024 के चुनाव का रण खत्म होने के बाद केंद्र में प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व वाली एनडीए की सरकार बन चुकी है। नई सरकार ने अपने पुराने तेवर में विपक्ष को कोसना, घेरना और के.पी. मल्लिक अपने हिसाब से पुराने ढर्रे पर कामकाज शुरू कर दिया है। अब अगला राजनीतिक घमासान चार राज्यों के विधानसभा चुनावों के साथ नवंबर-दिसंबर में मचेगा, लेकिन उत्तर प्रदेश में 2027 में होने वाले विधानसभा चुनाव की चर्चा अभी से राजनीतिक गलियारों में शुरू हो चुकी है।
इसके लिए सभी पार्टियां अभी से अपने कौल कांटे और तीर-तलवार दुरुस्त करने में लग गई हैं, जिसके रिजल्ट को आगामी कुछ माह के बाद उत्तर प्रदेश में 10 विधानसभा सीटों पर होने वाले उपचुनाव से आंके जाने की चर्चा चल रही है। इन 10 विधानसभा सीटों पर उपचुनाव कब होना है, ये तो अभी तय नहीं हुआ है, लेकिन भाजपा, कांग्रेस समेत प्रदेश की सभी प्रमुख और छोटी पार्टियों ने अपनी-अपनी चुनावी रणनीति बनाते हुए उपचुनाव में जीत के लिए कोशिशें शुरू कर दी हैं और इन चुनावों में ज्यादा से ज्यादा सीटें निकालने की कोशिशों में जुट गई हैं। लेकिन इस बार इस उपचुनाव में सभी पार्टियों का ध्यान दलित वोट बैंक पर है।
हालांकि इससे पहले भी दलित वोट बैंक पर सबकी नजर रहती थी, लेकिन 2024 के लोकसभा चुनाव के रिजल्ट आने के से पहले तक ऐसा माना जाता था कि दलित वोट बैंक मायावती का ही है और उनके अलावा इस वोट बैंक में कोई दूसरा सेंध नहीं लगा सकता। लेकिन रिजल्ट सामने आने पर और पहली ही कोशिश में आजाद समाज पार्टी (कांशीराम) के प्रमुख चंद्रशेखर आजाद की जीत के बाद दलित वोटरों के बारे में ये कहा जाने लगा है कि वो मायावती के हाथों से खिसक रहे हैं। इसी के चलते अब सभी पार्टियों की नजर मुख्य रूप से दलित वोटों के ऊपर बनी हुई है।
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दरअसल, जो मायावती कभी उत्तर प्रदेश से उप चुनाव नहीं लड़ रही थीं, वो इस बार उपचुनाव लड़ रही हैं, क्योंकि उनको भी अब ये चिंता सताने लगी है कि कहीं उनका दलित और महादलित वोट बैंक कांग्रेस और सपा न हथिया ले। दूसरी तरफ आजाद समाज पार्टी भी उनके लिए अब चुनौती बनेगी, क्योंकि दलितों का ध्यान अचानक से चंद्रशेखर आजाद की तरफ तेजी से खिंच रहा है और पिछड़ों का भी। इस बार के लोकसभा चुनावों में बसपा एक भी लोकसभा की सीट नहीं जीत पाई है। इसी से चिंतित मायावती ने बसपा के कार्यकर्ताओं को अब फिर से काम पर लगाने में लगी है और गांव-गांव जाकर अपनी पार्टी के कैडर को मजबूत करने की रणनीति पर भी काम कर रही है, जिससे साफ दिखाई देता है कि जिस बसपा ने कभी उपचुनाव नहीं लड़ने का दावे किए जाते थे, वो अब इस बार उपचुनाव भी लड़ने को मजबूर है कि कहीं उससे दूर होते दलित उससे हमेशा के लिए नाता न तोड़ लें।
ऐसा वो सिर्फ यूपी में ही नहीं कर रही है, बल्कि हरियाणा से लेकर दूसरे कई प्रदेशों तक में कर रही है, जिससे उसे दलितों के वोट बैंक का ही सहारा मिलता रहे और वो आगे अपनी शाख बचाने के लिए कुछ न कुछ सीटें जीतती रहे। हालांकि मायावती के रहते 100 फीसदी दलितों को उनसे अलग करना तो दूर की बात, बल्कि कोई दूसरी पार्टी फिलहाल समय में बसपा के खाते में जाने वाले दलित वोटरों को एकदम अपनी तरफ नहीं ला सकती, चाहे वो कोई भी पार्टी हो, और कुछ राजनीतिक जानकारों का ऐसा मानना है कि यूपी के कुल दलित वोटरों का 50 फीसदी हिस्सा आज भी मायावती को पसंद करता है।
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बहरहाल, कांग्रेस के साथ-साथ इस बार सपा प्रमुख अखिलेश यादव अपने पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक यानी पीडीए के फार्मूले को आगे बढाते हुए दलितों को अपने पाले में करने की भरसक कोशिश करेंगे। इस बार भी अच्छी संख्या में दलितों ने इंडिया गठबंधन यानि कांग्रेस और समाजवादी पार्टी को वोट देने का काम किया है। कांग्रेस चाहती है कि वो अपने पुराने दलित वोट बैंक को किसी तरह अपने साथ ला सके, जिसके लिए वो दलित वोटरों के ऊपर निगाह बनाए हुए हैं और वह चाहती है कि जिस तरह आजादी से करीब चार दशकों तक दलित उसके साथ रहे, उसी प्रकार पुनः उसके पाले में लौट आएं।
वहीं सत्ताधारी दल भाजपा भी काफी दिनों से दलितों की घेराबंदी करती नजर आ रही है और काफी संख्या में दलित वोटर भाजपा के साथ भी जुड़ गए थे। लेकिन इस बार आरक्षण खत्म करने और संविधान बदलने के मुद्दे के कारण दलित काफी बड़ी संख्या में भाजपा से छिटक चुका है। हालांकि दलित वोटरों को लुभाने के लिए भाजपा ने इस बार के लोकसभा चुनाव से पहले दलित सम्मेलन भी बड़ी संख्या में किए थे। लेकिन उसका खेल उसके बड़बोले नेताओं ने खेल बिगाड़ दिया और सारी मेहनत पर पानी फिर गया। इन सब सियासी खिलाड़ियों के बीच दलित राजनीति में एक नया राजनीतिक खिलाड़ी चंद्रशेखर आजाद भी ताल ठोक रहे हैं। चंद्रशेखर आजाद की आजाद समाज पार्टी भी उपचुनाव की 10 की 10 सीटों पर चुनाव लड़ने की तैयारी कर रही है।
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यानि अब अगले सबसे बड़ा राजनीतिक घमासान उत्तर प्रदेश के 2027 के विधान सभा चुनाव में दलितों की वोटो को लेकर और दलितों को अपने साथ लेने के लिए एक बहू कोणीय संघर्ष देखा जाएगा। परंतु एक बात है कि जिसके साथ दलित जाएगा। वही बहरहाल, उत्तर प्रदेश में इस बार होने वाले 10 सीटों पर उपचुनाव में हर पार्टी अपनी शाख बचाने की कोशिश कर रही है, जिससे उसके आगे की जीत के रास्ते खुल सकें या और ज्यादा जीत के चांस नजर आने लगे। दरअसल, भाजपा अगर इन 10 सीटों पर उपचुनाव हार जाती है, तो इसका मतलब ये होगा कि साल 2027 के विधानसभा चुनाव में भी उसकी हार तय है और ये किसी भी हाल में भाजपा नहीं चाहती।
इसी के चलते भाजपा कैडर से लेकर संघ और योगी सरकार भी किसी भी हाल ये सभी 10 सीटों पर इस उपचुनाव में जीत की कोशिशों में लगी है। कांग्रेस अपने दुबारा से यूपी में पैर जमाने के लिए कोशिशें कर रही है। और वो चाहती है कि अब लोकसभा की छह सीटें जीतने के बाद विधानसभा चुनाव में भी अच्छा प्रदर्शन करते हुए काफी सीटें निकाल सकती है, और इसी के चलते वो उपचुनाव में सीटों के बंटवारे के लिए अभी भी सपा पर निर्भर है। देखना है कि कब यूपी में खाली पड़ी 10 विधानसभा सीटों पर उपचुनाव होते हैं और कब उनका रिजल्ट सामने आता लेकिन ये कहा जा सकता है कि सभी दल इन सीटों पर अपनी-अपनी जीत के लिए कोशिशों में लगे हैं और ये जानती हैं कि इन सीटों पर हार का मतलब है आगे भी हार या बहुत कम सीटों प-पर जीत।